कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
यह सड़क बोलती है !
नयी दिल्ली की एक सड़क का नाम है-पार्लामेण्ट स्ट्रीट। ऑल इण्डिया रेडियो इसी पर है और इसके चौराहे पर आते ही सामने दिखाई देता है वह गोल संसद-भवन, जिसमें हिन्दुस्तान के भाग्य का फैसला हुआ करता है।
क्या नाम है इस सड़क का भी ! पन्द्रह अगस्त को हिन्दुस्तान में हरेक चीज़ बदल गयी, यहाँ तक कि राष्ट्रीय झण्डा भी चर्खा छोड़कर चक्रधारी हो गया, पर यह सड़क है कि पड़ी-पड़ी आते-जातों से मसखरियाँ करके कहती है-भाई, मैं पहले ही जानती थी कि दुनिया बदलेगी। कहो फिर बदली या नहीं? ऐसी बदली कि बरसाती बदली भी न बदली होगी, पर मैं आने वाले दौर को पहले ही समझ गयी थी और वाह, क्या नाम रखा था मैंने भी अपना-पार्लामेण्ट स्ट्रीट। रास्ता बताती थी असेम्बली-भवन का और थी पालामेण्ट स्ट्रीट। कहाँ बेकार, बेअसर बहस करने वाली वह असेम्बली और कहाँ सर्वतन्त्र स्वतन्त्र पार्लामेण्ट; मुझे मालूम थी पन्द्रह अगस्त की बात; तभी तो मैंने अपना यह नाम रखा था।
सच मुझे मालूम थी; बिलकुल उसी तरह, जिस तरह ज्योतिषियों को चाँद-सूर्य के ग्रहण की बात। न अन्दाज़, न अटकल, न ग़ालिबन, न यथा-सम्भव; पंचांग में साफ़ छपा रहता है और छपा क्या रहता है कोई यों ही उसकी तसवीर तक बनी रहती है कि कितना ग्रहण लगेगा। अजी, मिनट तो बहुत बड़ी बात है, पलों की गिनती लिखी रहती है। फिर दुनिया कोई मेरी मौसी का घर तो नहीं कि चाहे जहाँ से देख लो, वैसा ही दीखे-यह दुनिया है जनाब, विश्व-ब्रह्माण्ड। पंचांग में साफ़ लिखा रहता कि ग्रहण हिन्दुस्तान में इतना दीखेगा, अफ्रीका में इतना, अमेरिका में इतना और फ्रांस में दीखेगा ही नहीं।
"तो क्यों जी, ये ज्योतिषी लोग ग्रहण को ही पहले से जान लेते हैं या आदमी की क़िस्मत को भी?"
वाह, क्या सवाल पूछा है आपने भी ! क़िस्मत ही नहीं, ये लोग क़िस्मत के पन्नों का एक-एक अक्षर ऐसा पढ़ लेते हैं, जैसे चवन्नी-दर्शक सिनेमा के गानों की किताब !
कुछ लोग बॉक्सों में बैठकर सिनेमा देखते हैं, कुछ फ़र्स्ट क्लास में। सफ़ेदपोश गरीब आदमी भी अपने बच्चों का दूध बन्द करके दस आने का टिकट खरीदते हैं। कुछ लोग और भी उस्ताद हैं। टिकट तो लेते हैं, दस आने का, पर मैनेजर साहब से दोस्ती गाँठकर उसे सेकेण्ड क्लास बनवा लेते हैं, पर ये सब बेचारे यों ही पैसे खोते हैं सिनेमा में जाकर। पुराने लोग कहते हैं पैसा हाथ का मैल है, पर आँखों की रोशनी तो हाथ का मैल नहीं, उसे भी खोते हैं ये लोग। बॉक्सों में तो जाने क्या-क्या होता है, पर फ़र्स्ट और सेकेण्ड क्लास में भी लोग घास खोदते हैं, जी हाँ, घास खोदते हैं, यानी समय की जड़ काटते हैं।
जड़ काटने का मतलब आपने खूब पूछा-समय कोई पेड़ थोड़े ही है कि उसकी जड़ पर कोई कुल्हाड़ी मारे ! समय की जड़ काटने का मतलब है, समय बरबाद करना। वही करते हैं ये लोग। ऐसे गुमसुम बैठे रहते हैं, जैसे इनके मुँह में हापू निकल आया हो। कुछ लोग बात भी करते हैं, तो बेकार की। एक साहब हैं, अपनी टार्च जला-जलाकर कुछ नोट-बुक में लिखते रहते हैं। बेचारे सम्पादक होंगे किसी पत्र के। तभी तो अँधेरे में पटबीजने बन रहे हैं। घर जाकर आलोचना करेंगे फ़िल्म की। अरे साहब, फिल्म है तफ़रीह-मनोरंजन। दिन-भर दफ़्तर में घिसे, शाम को घर के धन्धों में पिसे, रात को ये दो घण्टे मिले, हँसिए, उछलिए, फदकिए, चहकिए !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में